क्या समलैंगिकता को अपराध घोषित करने वाली आईपीसी की धारा 377 को खत्म कर देने का वक्त आ गया है? सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (10 जुलाई) को अपने 2013 के उस आदेश पर पुनर्विचार शुरु किया जिसमें दिल्ली हाईकोर्ट के समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के फैसले को पलट दिया गया था।

समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के लिए दाखिल तमाम याचिकाओं पर मंगलवार (10 जुलाई) को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू होते वक्त समलैंगिक सम्बन्धों में शादी को कानूनी मान्यता जैसे मुद्दे भी उठे। याचिकाकर्ता के वकील मुकुल रोहतगी ने कहा कि कोर्ट सिर्फ आईपीसी की धारा 377 तक ही सीमित न रहे, ऐसे दंपती के जीवन, सम्पति की सुरक्षा सुनिश्चित करने का भी निर्देश दिया जाए। हालांकि केंद्र की ओर से पैरवी कर रहे एएसजी तुषार मेहता ने कहा कि सुनवाई फिलहाल धारा 377  तक ही सीमित रहनी चाहिए। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने स्पष्ट किया कि यह मामला केवल धारा 377 की वैधता से जुड़ा है और इसका दूसरे नागरिक अधिकारों से लेना-देना नहीं है। इससे जुड़े बाकी मसलों को बाद में देखा जाएगा।

बहस करते हुए मुकुल रोहतगी ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 21 के तहत जीने के अधिकार में हमारे मौलिक अधिकारों को सरंक्षण दे। उन्होंने कहा कि 2013 के फैसले ने समाज के एक तबके के अधिकारों को प्रभावित किया है और इसका समाज पर असर पड़ा है। उन्होंने दलील रखी कि हम समाज को दोषी नहीं ठहरा रहे लेकिन समाज के सिद्धांत को संवैधानिक नैतिकता की कसौटी पर परखना होगा। मुकुल रोहतगी ने कहा कि आईपीसी की धारा 377 का निर्माण विक्टोरियन नैतिकता की वजह से 1860 में कानून की किताब में हुआ जबकि प्राचीन भारत में हालात भिन्न थे। उन्होंने अर्द्धनारीश्वर, महाभारत के शिखंडी और खजुराहो के मंदिरों का हवाला दिया। उन्होंने तर्क दिया कि धारा 377 ‘प्राकृतिक’ यौन संबंध के बारे में बात करती है और समलैंगिकता भी प्राकृतिक है, यह अप्राकृतिक नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि समाज के बदलने के साथ ही नैतिकताएं बदल जाती हैं और 160 साल पुराने नैतिक मूल्य आज के नैतिक मूल्य नहीं होंगे। मुकुल रोहतगी ने यह भी कहा कि निजता के अधिकार के मामले की सुनवाई करने वाली 9 जजों की बेंच में से छह जजों की राय थी कि आईपीसी की 377 को अपराध के दायरे में लाने वाला सुप्रीम कोर्ट का फैसला गलत था।

सुनवाई के दौरान जस्टिस इंदू मल्होत्रा ने टिप्पणी की कि समलैंगिकता ना केवल मनुष्यों में ही नहीं बल्कि पशुओं में भी देखी जाती है।

याचिकाकर्ताओं की ओर से अरविंद दातार ने कहा कि दिल्ली हइकोर्ट के फैसले को केंद्र ने कभी चुनौती नही दी। इसका मतलब है कि सरकार चाहती है कि समलैंगिकों को अधिकार मिले। अरविंद दातार ने कहा ये कानून संविधान बनने से पहले का है, ये संसद का बनाया कानून नहीं है

अगर संसद ने किसी कानून को नहीं छुआ तो इसका मतलब ये नहीं कि संसद ने उसे स्वीकार कर लिया है। उन्होंने कहा मेडिकल स्टडी बताती हैं कि ये कोई बीमारी नहीं है।

जस्टिस चंद्रचूड़ ने टिप्पणी की कि अगर हम इस दलील को मानते हैं तो अपने ही लिंग का पार्टनर चुनना भी जीने के अधिकार के तहत होगा। हमने हदिया मामले में कहा था कि मनपंसद पार्टनर चुनने का अधिकार मौलिक अधिकार है। इसमें पार्टनर का मतलब समान लिंग का पार्टनर भी हो सकता है। इस मामले की सुनवाई कर रही संविधान पीठ में प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के अलावा जस्टिस आर एफ नरीमन, जस्टिस ए एम खानविलकर, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल हैं। इस मामले पर बुधवार को भी सुनवाई जारी रहेगी।

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