तीन तलाक को लेकर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि इसके चलते मुस्लिम महिलाओं का सामाजिक स्तर गिरता है और गरिमा प्रभावित होती है। इससे उन्हें संविधान में मिले उनके मौलिक अधिकारों से भी वंचित होना पड़ता है। इस तरह की  प्रथाएं मुस्लिम महिलाओं को अन्य समुदाय की महिलाओं के मुकाबले कमजोर बनाती हैं।

बता दें कि इससे पहले 30 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि, ‘मुस्लिमों में तीन तलाक, निकाह हलाला और बहु विवाह की प्रथाएं ऐसे अहम मुद्दे हैं, जिनके साथ ‘भावनाएं’ जुड़ी हुई हैं।’ सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर 11 मई से सुनवाई करेगा।

केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि भारत में 8 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं हैं। देश में मुस्लिम महिलाएं सामाजिक और आर्थिक रूप से बेहद असुरक्षित हैं। सरकार ने साफ किया कि महिलाओं की गरिमा से कोई समझौता नहीं होगा। केंद्र ने अपनी दलीलों में आगे कहा, ‘लैंगिक असमानता का बाकी समुदाय पर दूरगामी असर होता है। यह बराबर की साझेदारी को रोकती है और आधुनिक संविधान में दिए गए हक से भी रोकती है।’

केंद्र सरकार ने कहा कि, ‘ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) में 60 साल से ज्यादा वक्त से सुधार नहीं हुए हैं। मुस्लिम महिलाएं फौरन देने वाले तलाक के डर से बेहद कमजोर हो रही हैं। यह कहना सच हो सकता है कि तीन तलाक और एक से ज्यादा शादियों का असर कुछ ही महिलाओं पर होता है, लेकिन एक हकीकत यह भी है कि इसके दायरे में आने वाली हर महिला उसके खिलाफ इसके इस्तेमाल के डर और खतरे में जीती है।’ साथ ही केंद्र ने कहा कि, ‘इसका असर उनके हालात, उसकी पसंद, उनके आचरण और उनके सम्मान के साथ जीने के उनके हकों पर पड़ता है।’

मुस्लिम लॉ बोर्ड ने इसका बचाव करते हुए कहा है कि, ‘किसी महिला की हत्या हो, इससे बेहतर है कि उसे तलाक दिया जाए।’ बोर्ड का कहना है कि, ‘धर्म में मिले हकों पर कानून की अदालत में सवाल नहीं उठाए जा सकते।’

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