बिहार के गौरव और मजदूरों के श्रम का मीठा फल “मखाना” का एक संक्षिप्त परिचय

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कहते हैं कि तब जनकपुर क्षेत्र की सीमा आज के मधुबनी से शुरू हो कर पूरा उत्तर बिहार हुआ करती थी जिसमे  गंगा उसकी स्वाभाविक सीमा हुआ करती थी। और इस पूरे क्षेत्र में एक विशिष्ट प्रकार के खाद्य पदार्थ को पैदा किया जाता है जिसकी मांग देश ही नहीं पूरी दुनिया में है। अकेले बिहार राज्य के निर्यात होने वाले पदार्थों में इसका स्थान प्रथम है। जी हां मैं मखाना की बात कर रहा हूं। मगर प्रभु राम की पत्नी माता सीता से इसका संबंध का राज अभी नहीं खोल रहा। परदे के पीछे की पृष्ठभूमि में रखता हूं।

मखाना से मेरा लगाव तब से रहा है जब मैं बासोपट्टी प्रखंड जिला मधुबनी में बीडीओ हुआ करता था। तब एक कमिश्नर दरभंगा से मीटिंग में आया करते थे। नाम था श्री के सी साहा। उनके मीटिंग की खासियत थी की वे मीटिंग में यह नहीं पूछते थे की आप ने सरकारी योजनाओं में क्या प्रगति की। बल्कि उनका पूछना होता था की आपने उससे हटकर अपने प्रखंड में क्या अच्छा काम किया जिससे क्षेत्र में उद्यमिता विकसित हो पाता। मीटिंग से लौटने पर अजीब सी हालत थी। अनेकों चीज दिमाग में घर कर रही थी। गांव का भ्रमण कर लोगों से काफी विचार किया। तब उद्यमिता की बात हमारे समझ में नहीं आ पा रही थी। किताबी ज्ञान सहायक नहीं रही। और कमिश्नर साहेब अगले महीने फिर आनेवाले थे। काम को लेकर डेडलाइन भी नजदीक आ रही थी।

अचानक एक शाम  एक ग्रामीण मिलने आए। साथ में सौगात के तौर पर मखाना का पैकेट भी था। जब उन्होंने बताया की उनके घर मखाना का लावा फोड़ा जाता है जिसे बासोपट्टी के बाजार में ही लल्लू सेठ को बेच देते हैं तो लगा की आज वो गुत्थी खुल गई। फिर क्या था। मानो मेरे पंख लग गए। उनके घर गया, फिर उनके मखाना के तालाब गया और अपनी आंखो के सामने बड़ी कठिन परिश्रम से मजदूर भाइयों को तलाब से काला हीरा निकालते देखा। गजब की कारीगरी। इतनी देर तक उस मिट्टी भरे पानी के तल से डुबकी लगा कर मखाना के बीज खोजना साधारण बात नहीं है। फिर उसे सुखाने, उच्चतम तापमान पर गर्म करने और फिर पीट पीट कर मखाने का उजाला दाना निकालने की विधि सभी प्रक्रिया से गुजरना किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं प्रतीत हुई। ये बात 2004 की होगी।

मगर आज जब कृषि विभाग में लगभग बीस वर्षों के बाद मखाना के जिस प्रारूप का दर्शन करने का मौका मिला वह थोड़ा भिन्न है क्योंकि उसमे दो तीन महत्वपूर्ण विकास हुए हैं –

1. स्वर्ण वैदेही प्रजाति का जन्म होने से अब किसी गहरे तलाब में इसकी बुवाई करने की जरूरत खतम हो गई। । डेढ़ से दो फीट पानी भरे खेत में इसकी खेती होने लगी है जिसने डुबकी लगाने की शर्त को समाप्त कर दी है और इसके लिए मखाना के भारत के सबसे बड़े अनुसंधान केंद्र दरभंगा के वैज्ञानिक धन्यवाद के पात्र हैं। मैंने यहां पहुंचकर Dr Indu Sekhar से मुलाकात की तथा अनुसंधान केंद्र का जायजा लिया। वैज्ञानिक महोदय हाफ पैंट में मखाना की खेत में ही मिले देखकर एक बारगी में आइंस्टीन याद आ गए जिनके बारे में कहते हैं की कई दिनों तक कमरे में बंद रह जाते थे। विज्ञान की पथरीली जमीन पर ऐसे ही जुनूनी वैज्ञानिकों द्वारा अविष्कार के फसल को उगाया जाता रहा है।  एक एक चीज को बारीकी से उन्होंने बताना शुरू किया । लगे हाथ उन्होंने मखाना की खेत का भ्रमण कराया और मखाना के बाद अब कमल और पानी वाले सिंघाड़े के खेत की ओर भी इशारा किया। सभी के खेत दिखाए और तीनों के बीच के अंतर को भी बताए। मखाना के आठ साइज के बीजों को उन्होंने सलीके से रखा था. मखाना के बीज गोल होते हैं और कमल के बीज अंडाकार। यही फर्क दोनो को अलग पहचान देती है। कमल और कुमुदनी के भी फर्क को बताया। जैसे हर चमकने वाली चीज हीरा नहीं होती। कमल की इतनी सुंदर खेती मैंने जीवन में नहीं देखी थी। वह भी दमकते हुए स्वरूप में। भारत के राष्ट्रीय फूल के दर्शन से अभिभूत हो गया। कुमुदानी और कमल के बीच के अंतर को उनके पतों से पहचाना जाता है। कुमुदानी के गोल पत्ते के चारों तरफ का कोना त्रिकोण में कटा होता है (serrated) जबकि कमल बिलकुल गोल। कमल एवं अन्य जलीय पौधों में वैज्ञानिक श्री की रुचि अद्भुत थी। बताते बताते डूब जाते थे। अपने गंजी और बनियान का जरा भी ध्यान नहीं करके पानी में उतर कर  पूरे दम से बताने लगे। स्वर्ण वैदेही नामकरण स्वाभाविक लगा जिसने लोगों के श्रम को कम करके मखाना को एक नई दिशा दी है। यही कारण है की अब इस प्रजाति के बल पर बिहार के 9 जिलों (दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी, सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, कटिहार, पूर्णिया, किसनगंज) में मखाना का प्रसार हो चुका है जो कभी दरभंगा जिला की संपति होती थी। संतति तो अभी भी है। और आगे भी रहेगी। इसी कड़ी में एक नई प्रजाति का जन्म सबौर कृषि विश्वविद्यालय में हुआ है जिसकी मान्यता मात्रा हफ्ते भर पहले भारत सरकार द्वारा प्रदान की गई है। Dr Indu Sekhar द्वारा बनाया गया वीडियो यूट्यूब पर उपलब्ध है जिसे देखा जाना चाहिए।

 2. पटना में विश्व का सबसे बड़ा मखाना प्रोसेसिंग सेंटर खुल गया है जहां मखाना के लावे की स्वाभाविक ग्रेडिंग की जाती है मशीन द्वारा और उसके आधार पर उसके दाम तय किए जाते हैं। कूल आठ प्रकोष्ठ से आठ साइज के लावा निकलते देखना बहुत ही अच्छा लग रहा था। शक्ति सुधा नाम के ब्रांड से इसे खोला गया है और इसके संस्थापक का नाम है सत्यजीत जी। सत्यजीत जी इस यात्रा के अहम किरदार निकले। इन्होंने किसानों के बीच पहुंचकर उन्हें बीज देकर मखाने की खरीदगी को सुनिश्चित कर दिया। वाह भी एक बेहतर दाम के साथ। 50 रुपैया किलो के भाव से आज 1000 रुपैया किलो तक पहुंच चुका है। मखाना आज काजू किशमिश के बाजार से मुकाबले के लिए तैयार हो रही है। Mr Makhana जैसे ब्रांड एक एक दाने के लिए शक्ति सुधा के मोहताज हैं। जितना बड़ा दाना उतना बड़ा दाम। अब शक्ति सुधा का प्रोसेसिंग सेंटर दिल्ली में भी खुल चुका है। मखाना को जैसे पर मिल गया हो। बिल्कुल उड़ान को तैयार। उनके सेंटर पर विशेष सचिव के साथ भ्रमण करने से काफी कुछ सीखने को मिला। उनके सेंटर के चित्र भी इस पोस्ट के साथ संलग्न कर रहा हूं जिसकी अहमियत किसी टाटा बिरला से इस क्षेत्र में कम नहीं आंकी जा सकती। उनका मखाना के प्रति बेमिसाल लगाव को देख कर हम सब कायल हो गए।

 3. सबौर विश्वविद्यालय, भागलपुर के द्वारा तैयार प्रजाति सबौर 1 को भारत सरकार से मान्यता अभी अभी प्राप्त होने की सूचना मिली है जिससे इसकी उपज प्रति एकड़ काफी बढ़ जाने की उम्मीद है।

 4. मखाना का निर्यात भी प्रारंभ हो गया है । यूरोप से अमेरिका तक इसका बाजार फैलने लगा है। वर्तमान में निर्यात का अलग कोड नहीं मिलने से इसे अन्य ड्राइ फ्रूट कैटेगेरी के साथ ही रखा गया है । उम्मीद है की मखाना भविष्य में स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करेगा। बिहार में देश का 90 प्रतिशत मखाना मिलता है जो इस राज्य के लिए गौरव की बात है।

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कहानी समाप्त नहीं हुई। जाते जाते कुछ दर्द ए बयां भी करना है। आजादी के 75 साल पूरे हो चले मगर मखाना पूर्णतः मानवीय श्रम से मुक्त नहीं हो सका है। काले गोल बीज से लावा फोड़ने में अभी भी हमारे सहनी भाइयों को कठिन गर्मी का सामना करना पड़ता है। कुंदन तपाकर सोना बनाने की विधि अभी भी इन्ही के हाथों है। मशीन बनाने की पुर जोर कोशिश लुधियाना एवं जालंधर के उद्यमी कर रहे है। मगर सफलता अभी 20 प्रतिशत ही हाथ लगी है। मशीन हाथों पर कब्जा नहीं कर पाया है। उसका सबसे बड़ा कारण है आठ तरह के बीज का होना। हर मशीन की खसियत होती है की वह एक तरह के साइज वाले पर ही काम करता है। यहां आठ प्रकार के साइज होने से मशीन उसे छांट देता है। यही कारण है की मशीन का इस्तेमाल नहीं हो पाना। मगर ताबड़तोड़ प्रयोग हो रहे हैं। किशनगंज (भोला शास्त्री कृषि महाविद्यालय, सबौर विश्वविद्यालय) में वैज्ञानिक अनिल जी ने बताया की पूर्णिया में मशीनें काम करने लगी हैं। उनकी क्षमता का विकास किया जा रहा है। सबौर विश्वविद्यालय के सुहाने साहब ने बताया था की सबौर के द्वारा कई तरह की प्रजाति तैयार की गई है। प्रजाति के तैयार हो जाने पर बीजों के साइज में एकरूपता आ रही है। साथ ही सबौर में एक इंक्यूबेटर की स्थापना की गई है जहां बच्चे जाकर प्रयोग कर सकते हैं और नए मशीन के निर्माण में अपना सहयोग दे सकते हैं। सुहाने साहब विश्वविद्यालय के ब्रांड जैसे हैं। मेधावी होने के साथ साथ लगनशील एवं उत्साही भी। उम्मीद करता हूं आने वाले समय में इसका निदान जरूर निकल जायेगा।

देवी पर चढ़ने वाले प्रसाद के तौर पर जब मखाना पर आपकी नजर पड़े तो आपके अंदर बिहार के इस गौरव और मजदूरों के श्रम के अहसास की मिठास भर जाए।  इसी कामना के साथ आप सबों के समक्ष ये संकलन प्रस्तुत कर रहा हूं ताकि राज्य के विकास की धारा में हम सब एकाकी हो सकें। मखाना किसी खेती का नाम नहीं एक सभ्यता संस्कृति का भी नाम है जो वर्षों से अक्षय भंडार के तौर पर इस क्षेत्र में संरक्षित एवं फलित है। इसके संस्कार से रूबरू होकर धन्य धन्य हो गया। जय हिंद जय बिहार।

  • शैलेंद्र कुमार (लेखक, बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हैं)

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