Bhikhari Thakur… जो बन गए Bhojpuri गीत-संगीत, लोक-नाट्य और जन चेतना के अनूठे नायक

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Bhikhari Thakur
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Bhikhari Thakur: नाच उत्तर प्रदेश और बिहार में प्रचलित एक देशज शब्द है, जिसकी कल्पना मात्र से मन रोमांचित हो जाता है। Bhojpuri नृत्य और गीत की यह प्रचलित विधा वर्तमान परिदृश्य में भले ही अपनी फूहड़ता के कारण दम तोड़ रही है लेकिन इसी नाच ने बड़े ही गर्व के साथ एक पूरा युग जीया है।

जी हां, हम बात कर रहे हैं नाच के गौरवशाली भिखारी युग की। Bhikhari Thakur के प्रयासों से नाच हेय और नीचले दर्जे के मनोरंजन की विधा से निकलकर सामाजिक मान्यताओं और प्रतिष्ठा के साथ जुड़ी। इसके पीछे मुख्य कारण था भिखारी ठाकुर की शैली और नाच में कहे जाने वाले उनके कथ्य, जिसमें जीवन के रोजमर्रा की घटनाएं समाहित होती थीं।

नाच की विधा को उसके शीर्षतम ऊंचाई पर ले जाने वाले आंचलिक कलाकार, कथाकार, नाटककार Bhikhari Thakur ने साल 1917 में भोजपुरी बोली में नाच मंडली की स्थापना की। इसके बाद उन्होंने विश्व प्रसिद्ध बिदेसिया सहित गबरघिचोर, बेटी-बेचवा, भाई-बिरोध, पिया निसइल, नाई-बाहर, नकल भांड जैसे कई नाटकों और गीतों की रचना करके भोजपुरी को स्थापित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

Bhikhari Thakur की शैली भदेस भोजपुरी की थी

भदेस Bhojpuri भाषा में समाज की समस्याओं और कुरीतियों को रेखांकित करते हुए भिखारी ठाकुर ने अपनी बात कहने के लिए ऐसी शैली अपनाई जिसे पढ़े-लिखों के साथ-साथ अनपढ़ भी उतनी ही रोचकता के साथ सुनते-देखते थे।

18 दिसंबर 1887 को बिहार के छपरा जिले के कुतुबपुर गांव में जन्मे Bhikhari Thakur का जन्म एक गरीब नाई परिवार में हुआ था। अंग्रेजों की गुलामी के उस दौर में नाई परिवार वस्तुतः सेवक वर्ग की श्रेणी में आते थे। नाई परिवार का मुख्य काम गांव में होने वाले विवाह, जन्म, मृत्यु संस्कार और अन्य तरह के मांगलिक या शोक अनुष्ठानों को सम्पन्न कराना और गांव के सभी लोगों की हजामत बनाना और साथ ही उनकी चिट्ठी-पत्री को लेकर एक जगह से दूसरे जगह पहुंचाना होता था। इसके बदले में गांव के परिवार उन्हें हर साल खेती के बाद अनाज का कुछ हिस्सा दिया करते थे। जिससे उनका जीवनयापन होता था।

Bhikhari Thakur
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चूंकि Bhikhari Thakur भी नाई परिवार से आते थे और उनके पिता दलसिंगार ठाकुर भी वही काम किया करते थे तो उस लिहाज से भिखारी ठाकुर की नीयती में भी वही पेशा लिखा था। लेकिन उनके पिता दलसिंगार ठाकुर और मां शिवकली देवी चाहते थे कि वह पढ़ें और परिवार को इस पेशे से निकालकर विद्वता की ओर ले जाए।

गीत, संगीत, नाटक के माहौल से अछूते इस परिवार ने 9 साल की उम्र में Bhikhari Thakur को तालिम के लिए स्कूल में दाखिला दिलवा दिया। लगभग एक साल तक स्कूल में रटंत विद्या में घिसने के बाद भिकारी ठाकुर को अक्षरों की पहचना नहीं हुई। रोज-रोज गुरुजी के बेंत से हाथ लाल कराते-कराते थक चुके भिखारी ठाकुर ने एक दिन खुद से ही अपना नाम पाठशाला से काटकर पारंपरिक पेशे से जोड़ लिया। अब भिखारी ठाकुर के पास दो ही काम थे एक तो घर की गाय चराना और दूसरा जजमानों की हजामत करना। लेकिन थोड़े ही समय में उनका मन हजामत के काम से भी उचट गया।

Bhojpuri में नाटक लिखने वाले Bhikhari Thakur थोड़ा-बहुत पढ़े-लखे थे

Bhikhari Thakur का फिर से पढ़ने का मन करने लगा लेकिन गुरुजी की बेंत पाठशाला जाने के साहस को तोड़ रही थी। तब उनकी मदद की गांव के ही एक बनिया परिवार के भगवान साह ने। उन्होंने भिखारी ठाकुर को अक्षर ज्ञान कराया और धीरे-धीरे भिखारी ठाकुर थोड़ा-बहुत पढ़ने-लखने लगे।

पिता दलसिंगार ठाकुर को तब तक समझ में आ गया था कि भिखारी ठाकुर को पढ़ाना और गोयठें में घी सुखाना एक बराबर है। थोड़े समय के बाद पिता ने भिखारी ठाकुर का विवाह कर दिया। पत्नी के आते ही अक्षर ज्ञान धरा का धरा रह गया, भिखारी ठाकुर दमड़ी की जुगाड़ में सीधे जा पहुंचे बंगाल के खड़कपुर। उस जमाने दिल्ली की कोई खास वकत नहीं था।

Bhikhari Thakur
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उस जमाने में कमाने की खातिर लोग पूरब की ओर यानी कलकत्ते की ओर देखा करते थे। थोड़ा समय खड़कपुर में गुजारने के बाद भिखारी ठाकुर पहुंचे मेदनीपुर। शहर में हजामत का धंधा सही चल रहा था। दिन में काम औऱ रात में आराम का समय होता। उस समय उनके किसी साथी ने बताया कि मेदनीपुर में रामलीला हो रही है। चूंकि मेदमीपुर की रामलीला बहुत प्रसिद्ध थी तो भिखारी ठाकुर ने सोचा कि क्यों न देखा लिया जाए।

गांव में बीता उनका जीवन वैसे भी बिना गीत-संगीत के सुनसान ही था अब तक। भिखारी ठाकुर जा पहुंचे रामलीला देखने। जैसे ही पर्दा उठा और रामलीला के पात्रों ने स्वांग रचाना शुरू किया। भिखारी ठाकुर अपना सुधबुध खो बैठे। उस एक रात की रामलीला का असर ऐसा हुए कि भिखारी ठाकुर की जिंदगी ही बदल गई। उनके भीतर का कवि, गीतकार, नाटककार जाग उठा।

कलकत्ता से नाच का जादू सर पर लिये Bhikhari Thakur अपने गांव पहुंचे

कुछ समय बाद बंगाल से नाटक और नाच का जादू सर पर लिये भिखारी ठाकुर आ गये अपने गांव। गांव में लोगों की टोली इकट्ठा करके भिखारी ठाकुर ने रामलीला का ऐसा खेल रचाया कि हर तरफ उसकी कला का शोर मच गया। इसके बाद तो भिखारी ठाकुर ने रामलीला को किनारे किया और फिर बना ली अपनी नाच की मंडली।

नाच को कला के क्षेत्र में स्थापित करने में भिखारी ठाकुर का योगदान सर्वोपरि है क्योंकि उनसे पहले और उनके बाद नाच की कला में भौंडापन, अश्लीलता और द्विअर्थी मायने के कारण सदैव समाज के हाशिये पर रही। दरअसल भिखारी ठाकुर ने जिस सहजता के साथ नाच में आम आदमी के जीवन के दर्द, प्रेम, विरह और वीररस सहित अन्य सभी भावों को शब्दों में पिरोया और उसका नाच में प्रदर्शन किया वो अपने आप में अनुपम है।

Bhikhari Thakur
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उनके नाच में ‘बिदेसिया’ सबसे प्रसिद्ध है। इस पर साल 1963 में निर्देशक एसएन त्रिपाठी ने ‘बिदेसिया’ के नाम से ही फिल्म बनाई। इस फिल्म में एक गीत है मन्ना डे की आवाज में ‘हंसी-हंसी पनवा खियवले बेइमनवा, कि अपना बसे रे परदेस, कोरी रे चुनरिया में दगिया लगाइ गइले, मारी रे करेजवा में तीर’। इस गीत को जितनी भी बार सुना जाए, लगता है कि एक बार और सुन लें।

सरल शब्दों में दिल के भाव को कहने की इसी कला के कारण राहुल सांकृत्यायन ने भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का शेक्सपीयर कहा था। भिखारी ठाकुर ने साल 1930 से 1970 के बीच अपनी नाच मंडली के जरिये यूपी, बिहार, बंगाल और आसाम में कई नाटकों को किया। बाकायदा टिकट लेकर दर्शक पूरे फिल्मी स्टाइल में भिखारी ठाकुर की बेहतरीन रचनाओं का आनंद लेते थे।

सामंतवादी महौल में समाजवाद की अलख जगा रहे थे Bhikhari Thakur

उस दौर में जब सामंतवाद अपने चरम पर था तब भिखारी ठाकुर बड़ी ही खामोशी से अपनी नाच मंडली के जरिए समाजवाद की अलख को जगा रहे थे। भिखारी ठाकुर के नाच मंडली बनाने से पहले नाच केवल निम्न जातियों के मनोरंजन का साधन हुआ करता था। यही कारण था कि नाच दिखाने वाले ज्यादातर कलाकार निम्न जाति से होते थे। इतनी ही नहीं नाच में महिला का स्वांग भी पुरुष ही किया करते थे, डिसके कारण कुछ इलाकों में इसे ‘लौंडा नाच’ भी कहा जाता है। यही कारण थे जिसके कारण नाच के कलाकारों को हेय नजरों से देखा जाता था।

भिखारी ठाकुर के नाच पलटन में भी लोहार, नाई, कहार, रविदास, कुम्हार, दुसाध, पासी, और गोंड़ जैसी जाति के लोग प्रमुखता से शामिल थे। दरअसल ऊंची जांति के लोग नाच देखते तो थे लेकिन उसमें भाग लेने को वो कंलकित काम समझते थे। बड़े जातियों के युवाओं को डर लगता था कि नाच के कारण उनके परिवार को निम्न मानते हुए समाज उनसे रटी-बेटी का रिश्ता तोड़ लेगा। यही कारण था कि नाच में बड़ी जातियों के लोगों का प्रवेश न के बराबर था।

Bhikhari Thakur Writing
Bhikhari Thakur

नाच के जरिये पूरे मंडली को बांधे रखने के लिए भिखारी ठाकुर बिना पैसे लिए कभी कोई भी कार्यक्रम नहीं करते थे। भिखारी ठाकुर का साफ मानना था कि हम दर्शकों को मनोरंजन देंगे और दर्शक उस मनोरंजन के एवज में हमें धन देंगे। भिखारी ठाकुर का मानना था, ‘नाच जोड़ने-जोगाने की चीज है, तोड़ने-लुटाने की नहीं’। जोड़ने से भिखारी ठाकुर का आशय था कि नाच सबके लिए है। चाहे व्यक्ति अमीर हो या फिर गरीब उनकी मंडली का नाच सबके लिए समान रूप से था।

भिखारी ठाकुर के नाच में जो प्रसंग होते थे वो पूरी तरह से सामाजिक और मानवीय पहलूओं से जुड़े होते थे। उस दौर में समाज ऊंची जातियों और सामंती दमनचक्र के बीच पिस रहा था। जातीय भेदभाव, अशिक्षा, नशाखोरी, दहेज प्रथा, बेमेल विवाह जैसी कई सामाजिक समस्याएं मौजूद थीं। इन्हीं समस्याओं को रेखांकित करते हुए भिखारी ठाकुर ने अपनी नाच मंडली के जरिये उन्हें उठाने का प्रयास किया।

भिखारी ठाकुर के ये 5 कालजयी नाटक हैं, जो सदियों तक हमारे समाज में जिंदा रहेंगे

बिदेसिया: भिखारी ठाकुर के विश्व प्रसिद्ध नाटक में मुख्य विषय पलायन है। नाटक में निम्न वर्ग का भूमिहीन परिवार का अकेला पुरुष सदस्य रोजीरोटी की तलाश में गांव की दहलीज पार करके शहर कीओर पलायन कर जाता है। इस नाटक में घर में अकेली औरत का विरह और शहर में पुरुष का पराए औरत के प्रति प्रेम को दर्शाया गया है।

बेटी-बेचवा: इस नाटक में बेमेल विवाह पर कड़ा प्रहार किया गया है। बेमेल विवाह आज भी हमारे समाज में यदाकदा दिखाई दे जाते हैं। है। नाटक में दिखाया गया है कि किस तरह अमीर सवर्ण सामंती जमींदार बुढ़ापे में भी निम्न जाति ग़रीब और कम उम्र की लड़कियों को ख़रीदता है और उनसे विवाह करके उनकी जिंदगी बर्बाद कर देता है।

पिया निसइल: नशा आज भी दुर्भाग्यवश समाज की बहुत बड़ी समस्या बना हुआ है। इसी विषय पर आधारित भिखारी ठाकुर का यह नाटक दिखाता है कि नशाखोरी किस तरह से घर की औरतों को मुश्किलों में डाल देता है जब किसी महिला का पति या बेटा शराबी हो जाता है।

नाई बाहर: सामंतवादी समाज पर कड़ी चोट करता भिखारी ठाकुर का यह नाटक नाई और उसके यजमान के संबंध को दर्शाता है। नाटक में नाई की यजमानी प्रथा के अंतर्गत होने वाले कटु व्यवहार और भेद-भाव को खुलकर उठाया गया है।

बिरहा-बहार: इस नाटक की कहानी में दलित वर्ग के धोबी-धोबिन का मुख्य किरदार है। समाज में कपड़ा धोने वाले धोबी के महत्व को इस नाटक में दिखाया गया है। भिखारी ठाकुर ने इस नाटक में कपड़ा धुलने वाले धोबी-धोबिन की तुलना आत्मा धोने वाले ईश्वर से की है।

भिखारी ठाकुर की 5 भोजपुरी कविताएं

चलनी के चालल दुलहा

चलनी के चालल दुलहा सूप के फटकारल हे,
दिअका के लागल बर दुआरे बाजा बाजल हे।
आंवा के पाकल दुलहा झांवा के झारल हे
कलछुल के दागल, बकलोलपुर के भागल हे।
सासु का अंखिया में अन्हवट बा छावल हे
आइ कs देखऽ बर के पान चभुलावल हे।
आम लेखा पाकल दुलहा गांव के निकालल हे
अइसन बकलोल बर चटक देवा का भावल हे।
मउरी लगावल दुलहा, जामा पहिरावल हे
कहत ‘भिखारी’ हवन राम के बनावल हे।

करिके गवनवा, भवनवा में छोड़ि कर

करिके गवनवा, भवनवा में छोड़ि कर, अपने परईलन पुरूबवा बलमुआ।
अंखिया से दिन भर, गिरे लोर ढर ढर, बटिया जोहत दिन बितेला बलमुआ।
गुलमा के नतिया, आवेला जब रतिया, तिल भर कल नाही परेला बलमुआ।
का कईनी चूकवा, कि छोडल मुलुकवा, कहल ना दिलवा के हलिया बलमुआ।
सांवली सुरतिया, सालत बाटे छतिया, में एको नाही पतिया भेजवल बलमुआ।
घर में अकेले बानी, ईश्वरजी राख पानी, चढ़ल जवानी माटी मिलेला बलमुआ।
ताक तानी चारू ओर, पिया आके कर सोर, लवटो अभागिन के भगिया बलमुआ।
कहत ‘भिखारी’ नाई, आस नइखे एको पाई, हमरा से होखे के दीदार हो बलमुआ।

प्यार विलाप

हाय हाय राजा कैसे कटिये सारी रतिया
जबले ग‍इले राजा सुधियो ना लिहले, लिखिया ना भेजे पतिया । हाय हाय
हाय दिनवां बितेला सैयां बटिया जोहत तोर, तारा गिनत रतियां । हाय हाय
जब सुधि आवै सैयां तोरी सुरतिया बिहरत मोर छतिया । हाय हाय
नाथ शरन पिया भइले बेदरदा मनलेना मोर बतिया । हाय हाय

बेटी विलाप

गिरिजा-कुमार!, कर दुखवा हमार पार;
ढर-ढर ढरकत बा लोर मोर हो बाबूजी।
पढल-गुनल भूलि गइल समदल भेंड़ा भइल
सउदा बेसाहे में ठगइल हो बाबूजी।
केइ अइसन जादू कइल, पागल तोहार मति भइल
नेटी काटि के बेटी भसिअवलऽ हो बाबूजी।
रोपेया गिनाई लिहल पगहा धराई दिहल
चेरिया के छेरिया बनवल हो बाबूजी।
साफ क के आंगन-गली, छीपा-लोटा जूठ मलिके;
बनि के रहलीं माई के टहलनी हो बाबूजी।
गोबर-करसी कइला से, पियहा-छुतिहर घइला से;
कवना करनियां में चुकली हों बाबूजी।
बर खोजे चलि गइल, माल लेके घर में धइल
दादा लेखा खोजल दुलहवा हो बाबूजी।
अइसन देखवल दुख, सपना भइल सुख
सोनवां में डलल सोहागावा हो बाबूजी।
बुढऊ से सादी भइल, सुख वो सोहाग गइल
घर पर हर चलववल हो बाबूजी।
अबहूं से कर चेत, देखि के पुरान सेत डोला
काढ़, मोलवा मोलइह मत हो बाबूजी।
घूठी पर धोती, तोर, आस कइल नास मोर
पगली पर बगली भरवल हो बाबूजी।
हंसत बा लोग गॅइयां के, सूरत देखि के संइयाँ के
खाइके जहर मरि जाइब हम हो बाबूजी।
खुसी से होता बिदाई, पथल छाती कइलस माई
दूधवा पिआई बिसराई देली हो बाबूजी।
लाज सभ छोडि़ कर, दूनो हाथ जोड़ि कर
चित में के गीत हम गावत बानीं हो बाबूजी।
प्राणनाथ धइलन हाथ, कइसे के निबही अब साथ
इहे गुनि-गुनि सिर धूनत बानी हो बाबूजी।
बुद्ध बाड़न पति मोर, चढ़ल बा जवानी जोर
जरिया के अरिया से कटल हो बाबूजी।
अगुआ अभागा मुंहलागा अगुआन होके;
पूड़ी खाके छूड़ी पेसि दिहलसि हो बाबूजी।
रोबत बानी सिर धुनि, इहे छछनल सुनि;
बेटी मति बेंचक दीह केहू के हो बाबूजी।
आपन होखे तेकरो के, पूछे आवे सेकरों के
दीह मति पति दुलहिन जोग हो बाबूजी।

हमरा बलमु जी के बड़ी-बड़ी अंखिया से

हमरा बलमु जी के बड़ी-बड़ी अंखिया से,
चोखे-चोखे बाड़े नयना कोर रे बटोहिया।
ओठवा त बाड़े जइसे कतरल पनवा से,
नकिया सुगनवा के ठोर रे बटोहिया।
दंतवा ऊ सोभे जइसे चमके बिजुलिया से,
मोंछियन भंवरा गुंजारे रे बटोहिया।
मथवा में सोभे रामा टेढ़ी कारी टोपिया से,
रोरी बूना सोभेला लिलार रे बटोहिया।।

भिखारी ठाकुर ने जिस गंवई अंदाज में साहित्य, कला और संस्कृति के उत्थान का काम किया है, उसे देखते हुए भारत सरकार ने भिखारी ठाकुर को पद्मश्री से सम्मानित किया है। भिखारी ठाकुर ने जिस तरह से भोजपुरी में अपने नाच करे जरिए जनचेतना पैदा करने की कोशिश की। उसे उनके चाहने वाले प्रशंसकों ने भी हमेशा सराहा।

निचले जातियों को नारकीय दलदलों से उठाने के लिए भिखारी ठाकुर ने पूरे जीवन काम किया। अपने जीवनकाल में कुल 29 किताबें लिखने वाले भिखारी ने 10 जुलाई 1971 को शरीर त्याग दिया। लगभग 5 दशक पहले दिवंगत हुए भिखारी ठाकुर आज भी समाजवाद के चितेरा के तौर पर याद किये जाते हैं।

भिखारी ठाकुर से जुड़ा एक दुखद पहलू भी है कि भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर का परिवार आज भी दो जून की रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है। देश-विदेशों में भोजपुरी का परचम लहराने वाले भिखारी ठाकुर का परिवार आज भी दोयम दर्जे की जिंदगी जी रहा है।

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