प्रधानमंत्री मोदी मगहर जा रहे हैं। रविवार को मन की बात में उन्होंने यह बात कही भी कि 28 तारीख को मगहर जा रहा हूं। मन की बात में उन्होंने खुद को कबीर की बातों से जोडा भी।  आज हर दल और हर नेता बात बात में कबीर को याद करता है। पर सवाल यह है कि क्या कबीर आज होते तो क्या महसूस करते। आज की राजनीति और समाज की बदलती मान्यताओं के बीच क्या कबीर फिट हो पाते ?

डा. आंबेडकर ने अपने तीन गुरु माने थे, जिनमें कबीर साहेब उनके पहले गुरु हैं। स्पष्ट है कि कबीर ने उनको गहराई से प्रभावित किया था।  और यह अनायास नहीं था। कबीर हिंदी साहित्य के भक्ति काल के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे । ऐसे में सवाल यह है कि क्या कबीर आज के दौर में भी होते तो क्या सर्वमान्य स्वीकृति पाते …. अभी ज्यादा दिन नहीं हुए….मीडिया के तमाम हलको में मस्जिदों से लाउडस्पीकर हटाए जाने  पर बहस छिड़ी थी….ऐसे में लोगों ने कबीर को याद किया….कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय. ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय ….जाहिर है इससे एक संप्रदाय के लोगों को बुरा लगा । लेकिन तर्क करने वाले यह कहकर बच निकल गए कि हम क्या करें, यह तो संत कबीर ने कहा था।  ऐसा नहीं था कि कबीर ने जब धर्मपंथों में व्याप्त पाखंड, बाह्याचार और अंधविश्वासों की ओर समाज का ध्यान दिलाना चाहा, तो उन्होंने केवल किसी एक धर्मपंथ पर कटाक्ष किया था…. उन्होंने पंडे-पुरोहितों को भी उतना ही समझाया …. पाथर पूजे हरि मिले , तो मैं पूजू पहाड़ ।  कबीर खुद कहते … मेरा तेरा मनुआ कैसे एक होई रे…मैं कहता हों आँखिन देखी…तू कहता कागद की लेखी। ऐसे में आज तो यही लगता है कि आज यदि कबीर होते तो वह किसी के नहीं होते।

आज परिस्थितियां बदल गई हैं। आज दिनानुदिन प्रतिक्रियावादी होते जा रहे अस्मितावादी उभारों ने भी कबीर के राजनीतिक अपहरण की कोशिश शुरू कर दी है. एक तरफ जहां उन्हें ‘जुलाहा’ जाति का साबित कर ओबीसी आंदोलन उन्हें हड़पने की तैयारी में है, वहीं दलित विमर्श भी उन्हें आध्यात्मिक कम और राजनीतिक ज्यादा साबित करने पर तुला हुआ है. यह हम कैसे भूल सकते है कि किसी जमाने में बिना-सोचे समझे हमारे वामपंथी मित्रों ने भी कबीर को अपना ‘कॉमरेड’ बनाने की कोशिश की थी। लेकिन कबीर तो कबीर कबीर रहे ….न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर….लेकिन आज हमारे देश व समाज को दिशा देने वाले लोग लोग जब अपने द्वेष और अहंकार की तुष्टि के लिए कबीर या अन्य संतों के शब्दों का प्रयोग करने लगते हैं, तो जाने-अनजाने उन्हें किसी जाति-विशेष, पंथ-विशेष अथवा संप्रदाय-विशेष के खिलाफ खड़े करने का कुप्रयास करते हैं। इससे न केवल उन संतों के प्रति लोगों में गलतफहमी, खीज और अश्रद्धा उत्पन्न होती है, बल्कि इससे सामनेवाले से जिस सुधार की हम अपेक्षा कर रहे होते हैं उसका ठीक उल्टा होता है।

लेकिन राजनीति है…..सबको वोट चाहिए….इसीलिए सभी कबीर को अपनी सुविधानुसार सांचे में ढालने की कोशिश में लगे हैं। कोई मगहर जाएगा। तो कोई कबीर पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाएगा। कोई मूर्ति लगाएगा…तो कोई कबीर के नाम पर संस्था रजिस्टर्ड कराएगा। सवाल फिर वहीं है कि कबीर को समग्रता में क्या कोई अपनाएगा…..जिसके जबाव में सब चुप्पी लगा जाते है।  यदि जवाब है भी तो वह कबीर की साखियों में ही है….

जो संत होता है….वह किसी भी व्यक्तिविशेष या समुदायविशेष प्रति क्रोध, आवेश, आक्रोश, प्रतिक्रिया, घृणा इत्यादि से ग्रसित नहीं होता। वह किसी को फटकारता भी है, तो वह कबीर के ही शब्दों में ‘अन्तर हाथ सहार दै, बाहर मारै चोट’ जैसी फटकार होती है। कबीर जैसे संतों के लिए क्या राजा लोदी, क्या बाभन बुद्धिनाथ, क्या बनिया बाबूलाल और क्या बुधिया रंक। उन्होंने अपने साथ-साथ सबको एक ही पलड़े में तौला- ‘आए हैं सो जाएंगे राजा रंक फकीर, एक सिंहासन चढ़ चले एक बंधे जंजीर’ और कबीर जैसे संत सांप्रदायिक विद्वेष के नहीं, बल्कि सांप्रदायिक सौहार्द्र के प्रतीक हैं। उन्होंने तो यह भी कहा ….

‘भाई रे दुइ जगदीश कहां ते आया, कहु कौने बौराया.

अल्लाह राम करीमा केशव, हरि-हजरत नाम धराया..

वोही महादेव वोही मोहम्मद, ब्रह्मा आदम कहिये.

को हिन्दू को तुरुक कहावे, एक जिमी पर रहिये..’

और यही हमारे आज का सबसे बड़ा सच है, जिसे सबको मानना चाहिए।

—मनीष राज, एपीएन न्यूज

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