BLOG: अगर लोकतंत्र बचाने के लिए आप Mamta Banerjee के साथ जा रहे हैं…तो शायद आप झूठ बोल रहे हैं

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Subramanian Swamy and Mamata Banerjee

BLOG: TMC तेजी से AITMC बनती जा रही है। गोवा से लेकर मेघालय तक कांग्रेस और अन्य पार्टी से नेता टीएमसी में शामिल हो रहे हैं। आज ही मेघालय (Meghalaya) के पूर्व सीएम मुकुल संगमा लगभग 1 दर्जन विधायकों के साथ टीएमसी में शामिल हो गए। भाजपा के पूर्व सांसद और कांग्रेस के नेता कीर्ति आजाद (Kirti Azad), जदयू नेता पवन वर्मा ये कुछ नाम हैं जिन्होंने पिछले 1-2 दिनों में टीएमसी का दामन थामा है। उससे पहले भी यशवंत सिन्हा जैसे कद्दावर नेता ने ममता (Mamta Banerjee) के नेतृत्व को स्वीकार किया था।

ममता बनर्जी का अखिल भारतीय स्तर पर बढ़ता कद बीजेपी से अधिक कांग्रेस के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। ममता बनर्जी अपने आप को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने के लिए लगातार मेहनत भी कर रही हैं। विधानसभा चुनावों में उनका हिंदी में दिया गया भाषण लोगों ने काफी पसंद भी किया था। आम लोगों के बीच उनकी छवि एक मजबूत नेता के तौर पर बनी भी है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि क्या उनकी कार्यप्रणाली नरेंद्र मोदी से बहुत अधिक अलग है? क्या नेताओं का यह अलाप जायज है कि वो लोकतंत्र को बचाने के लिए ममता के साथ जा रहे हैं?

अपने राजनीतिक विरोधियों को लेकर ममता बनर्जी जिस हद तक अक्रामक रही हैं उसमें वो पीएम मोदी को भी पीछे छोड़ती हैं। बंगाल में पत्रकारिता करने वाले स्थानीय पत्रकार बताते रहे हैं कि कई ऐसे गांव हैं जहां आज भी सीपीआईएम के कैडर वापस अपने घर, टीएमसी की गुंडागर्दी के कारण नहीं आए। बंगाल विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी कार्यकर्ताओं की पिटाई तो शायद अब भी हर किसी को याद ही होगी।

बंगाल के विकास पर भी अगर नजर डालें तो उसमें कहीं से भी ममता बनर्जी बीजेपी या अन्य बुर्जुआ सोच वाली पार्टियों से अलग नहीं दिखती हैं। अपनी स्थापना के लगभग 3 दशक बाद भी टीएमसी के भीतर किसी भी तरह का आंतरिक लोकतंत्र नहीं दिखता है।

जो राजनेता अपने राजनीतिक भविष्य को बचाने के प्रयास में टीएमसी में जा रहे हैं उनके लिए यह सुखद हो सकता है। लेकिन अगर कोई यह सोचकर जा रहा हो कि लोकतंत्र बचाने की लड़ाई को वो मजबूत कर रहे हैं तो शायद यह उनकी जल्दीबाजी है। ममता बनर्जी की पिछली 2 दशक से अधिक की राजनीति को देखा जाए तो वो हमेशा से बीजेपी और आरएसएस के लिए एक सेफ्टी वाल्व की तरह साबित हुई हैं। बंगाल में वामदलों को कुचलने के लिए आरएसएस और ममता बनर्जी का गठजोड़ अभी इतना भी पुराना नहीं हुआ है जिसे पवन वर्मा जैसे जानकार नेता भूल जाएं।

जिस तरह से वामपंथ को बंगाल में खत्म करने के लिए ममता बनर्जी को मजबूत करना संघ की मजबूरी थी, शायद कांग्रेस को भी खत्म करने के लिए ममता बनर्जी का देश की राजनीति में मजबूत होना जरूरी है। राजनीतिक तौर पर वो कितना सफल होंगी ये तो भविष्य की गर्त में है। लेकिन वैचारिक तौर पर अगर कोई नेता यह मानता हो कि यह लोकतंत्र बचाने की लड़ाई है, तो नि:संदेह वो या तो गलत रास्ते पर हैं या वो गलत शब्दों का चयन कर रहे हैं, या झूठ बोल रहे हैं।

सुब्रमण्यम स्वामी जैसे वरिष्ठ नेता अगर ममता की तुलना जयप्रकाश नारायण से करने से पहले हिचक नहीं रहे हैं तो शायद इस उम्र में भी स्वामी को जयप्रकाश को समझने की जरूरत है। वैसे आरएसएस की स्वीकार्यता देश की राजनीति में बढ़ाने में ममता बनर्जी से पहले जयप्रकाश नारायण का भी योगदान रहा है। ममता के नेतृत्व में पूर्व बीजेपी नेताओं का एकजुट होना कई सवालों को जन्म दे रहा है। इस एकता को कोई भी राजनीतिक नाम तो दिया जा सकता है लेकिन शायद इसे लोकतंत्र बचाने की लड़ाई कहना संदेहास्पद है।

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(लेखक: सचिन झा शेखर जाने-माने पत्रकार हैं। राजनीति और पर्यावरण के मुद्दों पर लिखते रहे हैं। बिहार की राजनीति पर मजबूत पकड़ रखते हैं।)

(डिस्क्लेमर :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति APN न्यूज उत्तरदायी नहीं है)

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