पौराणिक मान्‍यताओं के अनुसार भगवान कृष्‍ण का जन्‍म भाद्रपद की अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र में हुआ था। इस त्यौहार के उपलक्ष्य में भगवान श्री कृष्ण के जीवन के दृश्यों को नाटक, उपवास, भागवत पुराण कथा, कृष्णा लीला जैसे माध्यमों द्वारा मध्यरात्रि तक प्रायोजित किया जाता है, क्योंकि मध्यरात्रि को ही भगवान श्री कृष्ण का अवतरण समय माना जाता है। श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व के अनेक रंग हैं। वे माँ के सामने रूठने की लीलाएँ करने वाले बालकृष्ण हैं तो वहीं अर्जुन को गीता का ज्ञान देने वाले योगेश्वर कृष्ण , माँ के लाड़ले, जिनके संपूर्ण व्यक्तित्व में भोलापन है। कहने को तो वो ईश्वर का अवतार हैं, पर कान्हा बालक रूप में ऐसी बाललीलायें करते हैं कि सभी का मनमोह लेते हैं। भगवान कृष्ण की ही लीलाये हैं जहाँ एक ओर मुख में पूरी पृथ्वी के दर्शन करा देते हैं तो वहीं न जाने कितने मायावियों, राक्षसों का संहार कर देने के बाद भी माँ यशोदा के लिए तो भोले भाले लल्ला ही  बने रहते हैं । जिनकी मोहनी सूरत और बाललीलाओं पर यशोदा माँ हमेशा ही मोहित रहतीं  हैं ।

महाकवि  सूरदास ने अपने पदों में अनोखी कृष्ण बाल लीलाओं का वर्णन किया है। सूरदास ने बालक कृष्ण के भावों का मनोहारी चित्रण प्रस्तुत किया है। जिसने यशोदा के कृष्ण के प्रति वात्सल्य को अमर कर दिया। श्रीकृष्ण का बाल स्वरूप स्नेहमय और मनमोहनी हैं, उनकी शरारतें निश्छल हैं, उनकी हर बाल लीला पर क्रोध की बजाय प्रेम उमड़ता है । महाकवि सूरदास पूरी तरह श्रीकृष्ण की बाल लीलालों में डूबे नज़र आते हैं। तभी तो सूरदास जी कहते हैं

“देखे मैं छबी आज अति बिचित्र हरिकी ,आरुण चरण कुलिशकंज “

सूरदास का वात्सल्य केवल वर्णन मात्र नहीं है। जिन-जिन स्थानों पर वात्सल्य भाव प्रकट हो सकता था, उन सब का वर्णन सूरदास जी की काव्य रचना में मिलता है। माँ यशोदा अपने नन्हें से शिशु को पालने में सुला रही हैं और निंदिया से विनती करती हैं की वह जल्दी से उनके लाल की अंखियों में आ जाए ।

जसोदा हरी पालनै झुलावै हलरावै, तू काहे न बेगहि आवे, तो का कान्ह बुलावें

भगवान कृष्ण की न जाने कितनी लीलाओं का वर्णन बालरूप में किया गया है लेकिन कवि विद्यापति ने कृष्ण के भक्त-वत्सल रूप को छोड़ कर श्रृंगारिक नायक वाला रूप ही चित्रित किया है। विद्यापति की राधा भी एक प्रवीण नायिका की तरह कहीं मुग्धा बनती है , तो कभी कहीं अभिसारिका विद्यापति ने कृष्ण और राधा की प्रेम लीलाओं का सुंदर वर्णन कुछ इस तरह से किया है।

“सजनी भलकाए पेखन न मेल, मेघ-माल सयं तड़ित लता जनि,हिरदय सेक्ष दई गेल”

कृष्ण की सुंदरता, पौरूष और उनके जीवन चरित का ब्रजभाषा में रसखान के कवित्त, सवैये और छंद में भगवान कृष्ण का सटीक वर्णन किया गया है।

मोहिनी मोहन सों रसखानि अचानक भेंट भई बन माहीं।जेठ की घाम भई सुखघाम आनंद हौ अंग ही अंग समाहीं।।
जीवन को फल पायौ भटू रस-बातन केलि सों तोरत नाहीं।कान्ह को हाथ कंधा पर है मुख ऊपर मोर किरीट की छाहीं।।

भगवान कृष्ण की भक्ति में इतना लीन थे कि कवि रसखान कहते हैं कि अगर मनुष्य का जीवन भी हो तो वो गोकुल गाँव के ग्वाले के रूप में हो और अगर पक्षी बने तो कालिंदी नदी के किनारे लगे कदम्ब की डाल पर ही बसेरा करें। 

मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन

जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥

पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन

जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥

कृष्ण के प्रति मीरा का प्रेम अलौकिक है। मीराबाई भक्ति और प्रेम की एक ऐसी मिसाल मानी जाती हैं, जिन्होंने अपना पूरा जीवन कृष्ण दर्शन औऱ उनके प्रेम में समर्पित कर दिया।

घायल की गति घायल जाणै, जो कोई घायल होय। जौहरि की गति जौहरी जाणै की जिन जौहर होय।

मीरा का कृष्ण के प्रति प्रेम इनकी लेखनी में स्पष्ट झलकता है कि वो मनमोहना के प्रेम की दीवानी थीं..

हे री मैं तो प्रेम-दिवानी मेरो दरद न जाणै कोय।दरद की मारी बन बन डोलूं बैद मिल्यो नही कोई।
ना मैं जानू आरती वन्दन, ना पूजा की रीत।लिए री मैंने दो नैनो के दीपक लिए संजोये।

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