देश में कोरोना का कहर है। कोरोना के कारण कई दिग्गज हस्तियां दुनिया को अलविदा कह रही हैं। इसी कड़ी में अब सोली सोराबजी का नाम जुड़ गया है। सोली भारत के पूर्व अटॉर्नी जनरल रह चुके हैं। अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकार के प्रहरी पद्म विभूषण सोली सोराबजी का 30 अप्रैल की सुबह कोरोना के कारण 91 साल की उम्र में देहांत हो गया। सोली सोराबजी के निधन के बाद नेता और वकील सभी शोक व्यक्त कर रह हैं।

सोली सोराबजी का जन्म मुंबई में 9 मार्च 1930 को एक साधारण से पारसी परिवार में हुआ था। उन्होंने अपनी शिक्षा सेंट जेवियर्स कॉलेज, मुंबई और गवर्नमेंट लॉ कॉलेज,मुंबई से पूरी करके सोराबजी ने 1953 में बार की सदस्यता ली। गवर्नमेंट लॉ कॉलेज,मुंबई में पढ़ते हुए उन्हें रोमन लॉ और जूरिप्रूडेंस के लिए किंलॉच फॉर्ब्स गोल्ड मेडल भी मिला था।

भारत के साथ लोग इन्हें अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी काफी प्यार देते हैं। सोराबजी ने अपने 68 साल के करियर में बहुत सारी भूमिकाएं निभाई हैं। एक तरफ वह जाने-माने मानवाधिकार वकील थे, जिन्हें UN ने मानवाधिकार की रक्षा के लिए 1997 में नाइजीरिया में अपना दूत बना कर भेजा था, तो दूसरी तरफ वह भारत के 1989-90 और 1998 – 2004 तक अटॉर्नी जनरल भी थे।

वाकालत के दौरान सोली सोराबजी ने अपने आप को अभिव्यक्ति की आजादी के प्रहरी के रूप में स्थापित किया। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट में उन्होंने कई लैंडमार्क केसों में प्रेस की आजादी की भी रक्षा की और भारत में प्रकाशन पर से सेंसरशिप ऑर्डर और प्रतिबंध को हटाने के लिए उनकी भूमिका बड़ी है। मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की आजादी के रक्षा के उनके प्रयासों के लिए उन्हें मार्च 2002 में भारत का दूसरा सबसे बड़ा पुरस्कार ,पद्म विभूषण से नवाजा गया था।

सोराबजी भारतीय न्यायिक इतिहास के कुछ सबसे बड़े मामलों से जुड़े। इसमें 1973 का लैंडमार्क केशवानंद भारती केस भी शामिल है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों ने संविधान की मूल सरंचना पर सुनवाई हुई। वो 1978 में मेनका गांधी केस से भी जुड़े थे, जिसके बाद संविधान के आर्टिकल 21 के तहत जीवन और निजता के अधिकार का दायरा बढ़ गया। इसके अतिरिक्त 1994 में उन्होंने S.R बोम्मई वाद में भी जिरह की जिसमें संघवाद और राज्य सरकारों के स्थायित्व के प्रश्न पर निणर्य दिया गया।

सोराबजी 1977 से 1980 तक देश के सॉलिसिटर जनरल रहे। दिसंबर 1989 से दिसंबर 1990 और फिर 1998 से 2004 तक, उन्होंने दो बार बतौर अटॉर्नी जनरल देश को सेवा दी। 2002 में, भारत सरकार ने अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया।

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