जब Kaifi Azmi ने लिखा, ‘शब-ए-इंतज़ार आखिर, कभी होगी मुक़्तसर भी…’

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Kaifi Azmi
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Kaifi Azmi: कुछ तो हुनरमंदी रही होगी, वो शायर मकबूल रहा। दुनिया के पैतरों से दूर वो बड़े ही करीने से इंकलाबी लफ्जों को कोरे कागज पर टांकता था। उसके मोहब्बत के ख्वाब भी बड़े पोशीदा होते थे।

तभी तो उसने साल 1964 में फिल्म ‘हकीकत’ ये लिखा, ‘मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था, के वो रोक लेगी मना लेगी मुझको, हवाओं में लहराता आता था दामन, के दामन पकड़कर बिठा लेगी मुझको। कदम ऐसे अंदाज़ से उठ रहे थे, के आवाज़ देकर बुला लेगी मुझको। मगर उसने रोका, न उसने मनाया। न दामन ही पकड़ा, न मुझको बिठाया। न आवाज़ ही दी, न वापस बुलाया। मैं आहिस्ता आहिस्ता बढ़ता ही आया, यहां तक के उससे जुदा हो गया मैं …’।

Kaifi Azmi
Kaifi Azmi

वो ताउम्र कॉमरेड रहा, वामपंथ की घुट्टी पीकर लेनिन और मार्क्स को जीने वाला वो हिंदोस्तान का ऐसा महफिल-ए-सुखनवर था, जो उर्दू अदब में नज्मों के जरिये दाखिल होकर शायरी को उसके मुकम्मल ऊंचाई पर ले गया।

वो प्यारा और अजीम शायर Kaifi Azmi था। कैफी अक्सर कहा करते थे आदमी जिसको नहीं जानता उससे नफरत करने लगता है या फिर खौफ खाने लगता है और डरा हुआ आदमी कभी मोहब्बत नहीं कर सकता है।

Kaifi Azmi ने मीना कुमारी के कहने पर फिल्म ‘पाकिजा’ के गीत लिखे

तभी तो उन्होंने साल 1972 में कमाल अमरोही की फिल्म ‘पाकिजा’ में गीत लिखा, ‘शब-ए-इंतज़ार आखिर, कभी होगी मुक़्तसर भी, ये चिराग़ बुझ रहे हैं, मेरे साथ जलते जलते’।

50 के दशक में जब कैफ़ी आज़मी ने सिनेमा में गीत लिखना शुरू किया तो बंट चुका मुल्क नये सिरे से बनने की कहानी लिखने में मशगूल था। अफसानानिगार मंटो पाकिस्तान जाकर बस चुके थे और लाहौर के लक्ष्मी मेंशन में गंदी शराब के सहारे खुद में ‘टोबा टेक सिंह’ की तलाश कर रहे थे।

Saadat Hasan Manto
Saadat Hasan Manto

वहीं हिंदोस्तान में भटकती मंटो की रूह जो ‘लिहाफ’ वाली इस्मत चुगतई की रोशनाई में दर्ज थी वो सहारा बनी कैफी की मुफलिसी को दूर करने में। दरअसल कैफी और और इस्मत दोनों ही ‘प्रोग्रेसिव राइटर एसोसिएशन’ के मेंबर थे।

जब बारी शौकत आजमी के पेट में पल रही शबाना आजमी की आयी तो कैफी ने फिल्मों के लिए अपनी कलम को कुर्बान कर दिया। इस्मत चुगतई के शौहर शाहिर लतीफ उस वक्त एक सिनेमा बनाने की तैयारी में थे। इस्मत ने कहा कि बाजार से क्यों तलाश रहे हो कोई राइटर, गीत लिखने के लिए कैफी को मौका दो।

तंगहाली में इस्मत चुगतई ने Kaifi Azmi को सहारा दिया

इस्मत ने कहा कैफ़ी शानदार शायर है और उसके हालात भी तंग चल रहे हैं, तुम्हारी फिल्म के बहाने उसके कुछ सहारा मिल जाएगा। तब शाहिद लतीफ ने फिल्म में गीत लिखने के लिए कैफ़ी आज़मी को कहा, बात तय हो गई 1000 रुपयों में कैफ़ी आज़मी फिल्म ‘बुजदिल’ के लिए गाने लिखेंगे।

Kaifi Azmi with wife Shaukat Azmi
Kaifi Azmi with wife Shaukat Azmi

वैसे तो इस फिल्म में उस जमाने के सबसे महंगे राइटर शैलेंद्र मुख्य गीतकार थे लेकिन 1000 की एवज में कैफी ने भी दो गीत लिखकर दे दिये।

फिल्म ‘बुजदिल में कैफी की कलम से निकला, ‘रोते-रोते बदल गई रात’, इस गीत को संगीत से संवारा सचिन देव बर्मन ने और स्वर थे लता मंगेशकर के। इस तरह से साल 1951 में कैफ़ी आज़मी ने हिंदी सिनेमा में कदम रखा।

अब जब कैफ़ी आज़मी की बात हो ही रही है तो जरा उनके बीते माज़ी के बारे में भी जान लेते हैं। हिन्दुस्तान के बड़े शायरों में शुमार होने वाले कैफ़ी आज़मी 14 जनवरी 1919 को उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले के एक छोटे से गांव मिजवां में पैदा हुए।

कैफ़ी आज़मी का असल नाम अख्तर हुसैन रिज़वी था। पिता जमींदार थे लेकिन साथ ही सरकारी मुलाजिम भी थे। पिता की ख्वाहिश थी कैफी बड़े होकर दीन का काम करें। इसलिए उर्दू और फारसी की तरबीयत के लिए लखनऊ के मशहूर सुल्तानुल मदारिस में तालीम हासिल करने के लिए भेजा गया।

Kaifi Azmi
Kaifi Azmi

लेकिन दिल से शायराना और दिमाग से कॉमरेड कैफ़ी साहब को सुल्तानुल मदारिस रास नहीं आया और कैफ़ी साहब ने वहां बगावत की और मज़हबी तालीम पर ही फातिहा पढ़ दिया।

इस दरम्यान कैफ़ी आज़मी पर सियासत और शेर-ओ-शायरी का ऐसा जुनून हावी हुआ कि तालीम को ताखे पर रखकर अली अब्बास हुसैनी, एहतिशाम हुसैन और अली सरदार जाफरी की रहबरी में मार्क्सवादी झंडा बुलंद करने लगे।

अली सरदार जाफरी ने Kaifi Azmi को पीसी जोशी से मिलवाया

जानेमाने शायर मजाज पर ‘लखनऊ की पांच रातें’ लिखने वाले अली सरदार जाफरी ने कैफ़ी आज़मी को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पहले महासचिव पीसी जोशी से मिलवाया।

जोशी ने कैफी को कहा कि वो बंबई में आकर पार्टी का काम संभालें। साल 1943 में कैफ़ी आज़मी जब बंबई के दफ्तर पहुंचे, तो उनकी उम्र महज़ 23 साल थी।

पार्टी ने उन्हें कम्यून में एक कमरा दे दिया रहने को और साथ में 40 रुपये महीने जेब खर्च के लिए भी मिलना तय हुआ। यहां पर कैफी की कलम ने जो धार दिखाई साम्राज्यवाद और सामंतवाद के खिलाफ कि

बंबई के लेखकों में मानों जलजला सा आ गया। वह अपनी नज़्मों से विरोध की आवाज़ को बुलंद कर रहे थे। उनकी नज्मों में अमीरी-गरीबी के बीच अंतर खत्म करने की बात होती, महिलाओं को पुरुषों के सामान बराबरी का दर्जा देने की बात होती।

Kaifi Azmi with Dilip Kumar
Kaifi Azmi with Dilip Kumar

कैफ़ी आज़मी की शायरी के बारे में ‘एक गधा नेफा में’ लिखने वाले कहानीकार कृश्न चंदर ने कहा, ‘वही व्यक्ति ऐसी शायरी कर सकता है, जिसने पत्थरों से सिर टकराया हो और सारे जहां के गम अपने सीने में समेट लिए हो।’

साल 1946 में कैफ़ी आज़मी बंबई से हैदराबाद गये थे एक मुशायरे में। वहीं उनकी मुलाकात हुई शौकत नाम की एक लड़की से, जो उनके शेर सुनकर मुरीद हो चुकी थी।

अमीर खानदान से ताल्लूक रखने वाली शौकत ने परिवार के खिलाफ जाकर कैफी से निकाह किया और अब्बा के घर की सारी दौलत छोड़कर अपने शौहर Kaifi Azmi के साथ बंबई के उसी कम्यून में आ गईं।

शौकत ने घर के विरोध में जाकर Kaifi Azmi से निकाह किया

कैफी की जिंदगी में शौकत की आमद ने आमदनी बढ़ाने की ओर इशारा किया। खाली जेब की दुशवारियों को कम करने के चलते कैफ़ी आज़मी ने मुंबई के एक अख़बार ‘जम्हूरियत’ में रोज़ाना नज़्म लिखने लगे।

फिर शबाना आजमी और फिर बाबा आजमी के आने से कैफी के खर्चे और भी बढ़ गये। तब शौकत आजमी ने ऑल इंडिया रेडियो में नौकरी कर ली और इस तरह से जिंदगी की गाड़ी धीरे-धीरे वक्त का फासला तय करने लगी।

Kaifi Azmi with daughter Shabana Azmi and wife Shaukat Azmi
Kaifi Azmi with daughter Shabana Azmi and wife Shaukat Azmi

वैसे उस दौर में सज्जाद ज़हीर, बलराज साहनी, शैलेंद्र, मजरूह सुल्तानपुरी, जां निसार अख्तर, साहिर लुधियानवी, प्रेम धवन, अनिल बिस्वास, ख्वाजा अहमद अब्बास, एके हंगल और सलील चौधरी जैसे लोग माया नगरी बंबई में कैफ़ी आज़मी के साथ पर लेफ्ट की लड़ाई को सिनेमा के पर्दे पर बखूबी उतार रहे थे।

वहीं कैफी का भी साल 1951 में फिल्मों में दाखिला हो चुका था लेकिन सिनेमा में उन्हें मुकम्मल पहचान मिली साल 1959 में गुरुदत्त की फिल्म ‘कागज के फूल’ से। दरअसल गुरुदत्त साल 1957 में एवरग्रीन सिनेमा ‘प्यासा’ बना चुके थे।

फिल्म ‘कागज के फूल’ के लिए अबरार अल्वी ने Kaifi Azmi को गुरुदत्त से मिलवाया

फिल्म ‘प्यासा’ में गीत और संगीत को लेकर सचिन देव बर्मन और साहिर लुधियानवी के बीच कुछ खटपट हो गई थी। अब जब गुरुदत्त ‘कागज के फूल’ बनाने को हुए तो सचिन दा ने साफ कह दिया कि वो साहिर के साथ काम नहीं करेंगे।

गुरुदत्त बड़ी उलझन में पड़े थे तभी उनकी फिल्मों के राइटर अबरार अल्वी ने उन्हें Kaifi Azmi का नाम सुझाया। तब गुरुदत्त ने उन्हें गीत लिखने को कहा और कैफी ने लिखा, ‘वक़्त ने किया क्या हंसीं सितम, तुम रहे न तुम हम रहे न हम। बेक़रार दिल इस तरह मिले, जिस तरह कभी हम जुदा न थे। तुम भी खो गए, हम भी खो गए, एक राह पर चलके दो क़दम’।

Film Kagaz Ke Phool
Film Kagaz Ke Phool

जरा सोचिए कैफी ने किस स्केल, किस मीटर पर इस गीत को लिखा और गीता दत्त ने किस खूबसूरती से इसे गाया कि यह एक अमर गीत बन गया। इस एक गीत ने न सिर्फ सिनेमा इंडस्ट्री बल्कि पूरे देश में कैफी का नाम हो गया।

खैर जिंदगी है तो दस्तूर भी यही है कि इंसान वक्त की तमाम मसरूफियत में उलझा रहे। साल 1943 में बंबई में इंडियन पीपल्स थियेटर असोसिएशन (इप्टा) का गठन हुआ था और Kaifi Azmi लंबे समय तक बंबई इप्टा के अध्यक्ष रहे।

वहीं पैसे कमाने के लिए कैफ़ी आज़मी बंबई के मशहूर टैबलॉयड ‘ब्लिट्ज’ में तंज लिखा करते थे। यह सिलसिला लगभग एक दशक तक चला, जिसका साल 2001 में ‘नई गुलिस्तां’ के नाम से दो खंडों में प्रकाशन भी किया गया।

Kaifi Azmi
Kaifi Azmi

अब फिर से फिल्मों की बात करते हैं। साल 1964 में कैफी नाम का डंका एक बार फिर बजा और वो फिल्म थी ‘हकीकत’। सिनेमा इंडस्ट्री में चेतन आनंद नवकेतन बैनर के तले फिल्में बनाते थे, वो भी इप्टा से जुड़े हुए थे। इसलिए कैफी से अच्छी जान पहचान थी।

एक दिन चेतन आनंद कैफी के पास पहुचे और बोले मैं एक फिल्म बना रहा हूं आप उसमें गीत लिख दीजिए। कैफ़ी ने हंसते हुए कहा कि चेतन साहब आपके साथ काम करना मेरे लिए बहुत बड़ी बात होगी, लेकिन सिनेमा के लोग कहते हैं कि मेरे सितारे गर्दिश में हैं।

चेतन आनंद ने कहा कि आप अपनी बात छोड़िये मेरे बारे में भी लोग यही कहते हैं। चलिए साथ काम करते हैं क्या पता कुछ हो ही जाए।

फिल्म ‘हकीकत’ के हिट होने में Kaifi Azmi के गानों का बड़ा रोल था

फिल्म ‘हक़ीक़त’ में Kaifi Azmi की कलम से निकला, ‘होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा, ज़हर चुपके से दवा जानके खाया होगा। दिल ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाए होंगे, अश्क़ आंखों ने पिये और न बहाए होंगे। बन्द कमरे में जो खत मेरे जलाए होंगे, एक इक हर्फ़ जबीं पर उभर आया होगा’। इस गीत को मोहम्मद रफी, मन्ना डे, तलत महमूद और भूपेंद्र ने आवाज दी और मेलोडी थी मदन मोहन की।

Film Haqeeqat
Film Haqeeqat

इसके बाद साल 1966 में ऋषिकेश मुखर्जी ने अपनी फिल्म ‘अनुपमा’ के गाने लिखने का बोझ कैफी साहब के कंधे पर डाल दिया, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया।

इश्क की चाशनी से सरोबर अल्फाज में लिखे, ‘धीरे धीरे मचल ऐ दिल-ए-बेक़रार, कोई आता है। यूं तड़पके न तड़पा मुझे बारबर, कोई आता है। उसके दामन की ख़ुशबू हवाओं में है, उसके कदमों की आहट फ़ज़ाओं में है। मुझको करने दे, करने दे सोलह श्रिंगार। कोई आता है, धीरे धीरे मचल ऐ दिल-ए-बेकरार’। हेमंत कुमार के तराने पर लता जी ने इस गीत को गाया है।

वैसे Kaifi Azmi ने फिल्मों के लिए कम लिखा लेकिन जितना भी लिखा वो हर मायने में कामयाब रहा। साल 1970 में फिर वही जोड़ी बनी। चेतन आनंद, कैफ़ी आज़मी, मदन मोहन की और जो दर्शकों को फिल्म मिली। इसका नाम था ‘हीर रांझा’।

मोहमम्द रफी की आवाज में जब दुनिया ने टुटे हुए दिल को ‘ये दुनिया ये महफ़िल, मेरे काम की नहीं। किसको सुनाऊं हाल-ए-दिल बेक़रार का। बुझता हुआ चराग़ हूं, अपने मज़ार का। ऐ काश भूल जाऊं, मगर भूलता नहीं। किस धूम से उठा था, जनाज़ा बहार का’। गाते सुना तब लोगों ने कहा कि कैफी जमाने से उपर के शायर हैं।

Film Heer Raanjha
Film Heer Raanjha

इसी गीत की अगली दो लाइनों में मोहब्बत की उस तपिश को बखूबी समझा जा सकता है, जिसे बल्लीमारान की गलियों में ग़ालिब ने सदियों पहले लिखा था।

वो लाइनें हैं, ‘अपना पता मिले न खबर यार की मिले, दुश्मन को भी ना ऐसी सज़ा प्यार की मिले, उनको खुदा मिले है खुदा की जिन्हें तलाश, मुझको बस इक झलक मेरे दिलदार की मिले’।

Kaifi Azmi को बस गीत नहीं बल्कि फिल्मों में कहानी, स्क्रिप्ट, डायलॉग लेखन में भी महारत हासिल थी। कैफी ने लगभग 90 फ़िल्मों के 250 गीत लिखे।

70 के दशक में कैफी साहब को लकवा मार गया। जिस्म के एक हिस्से ने जिंदगी भर साथ नहीं दिया लेकिन फिर भी कैफ़ी आज़मी को शिकवा नहीं था। जब तक जिंदा रहे कट्टरपंथ और फिरकापरस्ती के खिलाफ लोहा लेते रहे।

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Naushad, Ali Sardar Jafri, Majrooh Sultanpuri and Kaifi Azmi

‘औरत’, ‘मकान’, ‘धमाका’, ‘तेलगाना’, ‘आवार सज्दे’, ‘दूसरा बनवास’ जैसी नज्मों से दुनिया को झिंझोड़ते रहे। 1974 में भारत सरकार ने इन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया। Kaifi Azmi को दो बार फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।

इसके अलावा फिल्म ‘गर्म हवा’ के लिए तीन फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिला। साल 1975 कैफ़ी आज़मी को आवारा सिज्दे के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार मिला।

इंकलाब के अज़ीम शायर कैफी आजमी 10 मई 2002 को मुंबई के जसलोक अस्पताल में हमेशा के लिए खामोश हो गए लेकिन कैफ़ी आजमी का दिल आज भी आजमगढ़ के उसी मिजवां गांव में धड़क रहा है। कैफी का मानना था, ‘अपनी मिट्टी से कटा शख्स किसी का नहीं हो सकता’।

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