अयोध्या के राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद पर एक बार फिर बुधवार (14 मार्च) को सुनवाई शुरु हुई। इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट साफ कर चुका है कि वो इस मामले को आस्था की तरह नहीं बल्कि जमीनी विवाद के तौर पर देखेगा। बुधवार को सुनवाई के दौरान सुन्नी वक्फ बोर्ड और यूपी सरकार के वकील ने नए पक्षों को मंजूरी न दिये जाने की अपील की जिसे कोर्ट ने मंजूर कर लिया।

कोर्ट एक-एक करके उन याचिकाकर्ताओं को बुलाया जिन्होंने इस केस में अलग से याचिका दायर की थी। इनमें सुब्रह्मण्यम स्वामी भी शामिल रहे। स्वामी ने इस केस से खुद को जोड़े रखने के लिए दलीलें दीं लेकिन कोर्ट ने कहा कि ये टाइटल सूट है इसमें बीच में याचिका दाखिल करने वालों का क्या काम? जस्टिस अशोक भूषण ने कहा कि हम अपील पर सुनवाई करने बैठे हैं। जो हाईकोर्ट में पक्ष ही नहीं थे, उन्हें अब कैसे सुना जा सकता है? साथ ही कोर्ट ने रजिस्ट्री से भी इस बारे में कोई नई अर्ज़ी स्वीकार न करने को कहा। स्वामी ने पूजा के अधिकार का हवाला देते हुए याचिका दाखिल की थी। कोर्ट का कहना है कि इस याचिका को उपयुक्त बेंच सुनेगी।

सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया कि कोर्ट के बाहर आपसी सेटलमेंट के लिये हम किसी को नियुक्त नहीं करने जा रहे है। लेकिन अगर कोई समझौते के लिए वार्ता कर रहा है तो उसको हम रोक नहीं रहे हैं। कोर्ट ने पूर्व कांग्रेस नेता आरिफ मोहम्मद खान की दलीलों के जवाब में ये बात कही।

सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड की ओर से पेश हुए राजीव धवन ने एक बार फिर मामले को पांच जजों की बेंच को सौंपने की मांग की। इस पर 3 जजों की बेंच ने कहा कि आप हमें इस बात पर संतुष्ट करें कि मामला क्यों बड़ी बेंच को भेजा जाना चाहिए। धवन ने पुराने फैसले में खामियों का जिक्र किया जिसमें कहा गया था कि इस्लाम धर्म के पालन करने के लिए मस्ज़िद ज़रूरी नहीं है। उन्होंने कहा कि मस्जिद के अंदर एक मुसलमान को इबादत का अधिकार इस्लामिक आस्था का मूल हिस्सा है। अब इस मामले पर कोर्ट 23 मार्च को सुनवाई करेगा।

सुप्रीम कोर्ट इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2010 के फैसले के खिलाफ दायर 13 अपीलों पर सुनवाई कर रहा है। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में अयोध्या में 2.77 एकड़ के विवादित स्थल को इस विवाद के तीनों पक्षकारों सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और भगवान राम लला के बीच बांटने का आदेश दिया था।

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