उत्तर प्रदेश राज्य v/s राजनारायण मामला जिसमें छिपी है RTI Act की कहानी…

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State of Uttar Pradesh v/s Rajnarayan Case
उत्तर प्रदेश राज्य v/s राजनारायण मामला

गुरुवार को देश में सूचना का अधिकार कानून लागू हुए 18 साल पूरे हो गए हैं। सूचना के अधिकार को देश के लोकतंत्र को मजबूत करने के रूप में देखा जाता है, जिसकी मदद से देश के आम नागरिक को सरकार के कामकाज की जानकारी मिलती है। सरकारी व्यवस्था में पारदर्शिता लाने के लिए इस कानून को बनाया गया था। यह कानून कितना असरदार है इस पर विचार विमर्श हो सकता है लेकिन आज हम आपको इस कानून की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बारे में बताएंगे।

भारत में अगर सूचना के अधिकार कानून के इतिहास को जानना है तो हमें वैश्विक स्तर पर हुई कुछ घटनाओं को भी समझना होगा। साल 1948 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स को अपनाया गया। इसके माध्यम से सभी को मीडिया या किसी अन्य माध्यम से सूचना मांगने एवं प्राप्त करने का अधिकार दिया गया।

इस डिक्लेरेशन के मुताबिक, “प्रत्येक व्यक्ति को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है; इस अधिकार में हस्तक्षेप के बिना राय रखने और किसी भी मीडिया के माध्यम से और सीमाओं की परवाह किए बिना सूचना और विचार प्राप्त करने और प्रदान करने की स्वतंत्रता शामिल है।”

आपको बता दें कि आजादी से पहले अंग्रेजों ने 1923 में भारत में ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट को लागू किया था। लेकिन जब आजादी के बाद संविधान बनाया गया तो किसी ने इस कानून में बदलाव करने की नहीं सोची । सरकारी जानकारी पाने का कोई अधिकार आम आदमी को नहीं था।

इसके बाद सूचना के अधिकार के बारे में जागरूकता भारत में 1976 में तब आई जब “उत्तर प्रदेश राज्य बनाम राजनारायण मामले” में शीर्ष अदालत ने सरकार को नागरिकों के लिए सभी आवश्यक जानकारी उपलब्ध कराने का निर्देश दिया। इस आदेश के बाद सूचना का अधिकार मौलिक अधिकार माना गया।

1982 में द्वितीय प्रेस आयोग ने सिफारिश की कि ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट को खत्म किया जाए। साल 1990 में सूचना के अधिकार कानून की मांग उठी। अरुणा रॉय के नेतृत्व में मजदूर किसान शक्ति संगठन ने आंदोलन किया। इसके बाद तत्कालीन पीएम वीपी सिंह ने वादा किया कि वे सूचना के अधिकार के लिए कानून लाएंगे। बाद में हरिदेव शौरी की अध्यक्षता में समिति बनाई गई। जिसने अपनी रिपोर्ट फ्रीडम ऑफ इंफॉर्मेशन 1997 में जमा की।

बाद में साल 2002 में इस रिपोर्ट को कानून के तौर पर वाजपेयी सरकार ने संसद से पारित तो करवाया लेकिन इसे इस नाम से लागू नहीं किया गया। इसके बाद 2005 के द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी सूचना के अधिकार की सिफारिश की।

मई 2005 में मनमोहन सिंह सरकार ने फ्रीडम ऑफ इंफॉर्मेशन कानून में कई बदलाव कर इसे संसद से पारित करवाया। बाद में इस कानून पर तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने हस्ताक्षर किए। इस तरह ये कानून अस्तित्व में आया।

सूचना का अधिकार कानून क्या कहता है?

सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 भारत सरकार का एक अधिनियम है, जिसे नागरिकों को सूचना का अधिकार उपलब्ध कराने के लिये लागू किया गया है। इस अधिनियम के प्रावधानों के तहत भारत का कोई भी नागरिक किसी भी सरकारी प्राधिकरण से सूचना प्राप्त करने हेतु अनुरोध कर सकता है, यह सूचना 30 दिनों के अंदर उपलब्ध कराई जाने की व्यवस्था की गई है। यदि मांगी गई सूचना जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित है तो ऐसी सूचना को 48 घंटे के भीतर ही उपलब्ध कराने का प्रावधान है।

इस अधिनियम में यह भी कहा गया है कि सभी सार्वजनिक प्राधिकरण अपने दस्तावेज़ों का संरक्षण करते हुए उन्हें कंप्यूटर में सुरक्षित रखेंगे। प्राप्त सूचना की विषयवस्तु के संदर्भ में असंतुष्टि, निर्धारित अवधि में सूचना प्राप्त न होने आदि जैसी स्थिति में स्थानीय से लेकर राज्य एवं केंद्रीय सूचना आयोग में अपील की जा सकती है।

इस अधिनियम के माध्यम से राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, संसद व राज्य विधानमंडल के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) और निर्वाचन आयोग (Election Commission) जैसे संवैधानिक निकायों व उनसे संबंधित पदों को भी सूचना का अधिकार अधिनियम के दायरे में लाया गया है।

इस अधिनियम के अंतर्गत केंद्र स्तर पर एक मुख्य सूचना आयुक्त और 10 या 10 से कम सूचना आयुक्तों की सदस्यता वाले एक केंद्रीय सूचना आयोग के गठन का प्रावधान किया गया है। इसी के आधार पर राज्य में भी एक राज्य सूचना आयोग का गठन किया जाएगा। इसके अंतर्गत सभी संवैधानिक निकाय, संसद अथवा राज्य विधानसभा के अधिनियमों द्वारा गठित संस्थान और निकाय शामिल हैं। राष्ट्र की संप्रभुता, एकता-अखण्डता, सामरिक हितों आदि पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली सूचनाएं प्रकट करने की बाध्यता से मुक्ति प्रदान की गई है।

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