जब इंदिरा ने पत्रकारिता पर लगाया आपातकाल, “विनाशकाले विपरीत बुद्धि…!” जेपी की टिप्पणी भी चढ़ गयी थी सेंसर की बलि

आपातकाल 21 महीने तक चला। जनवरी 1977 में, सरकार ने कहा कि वह जल्द ही चुनाव कराएगी। मार्च 1977 के चुनावों में कांग्रेस को भारी हार का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी की स्थापना के लिए विपक्षी नेता एकजुट हुए, जिसने स्वतंत्र भारत में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनाई।

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Emergency के दौरान Bollywood ने देखे सबसे बुरे दिन, सरकार विरोधी एक्टर्स की ऐसे होती थी बेइज्जती
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देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की आज जयंती है। इंदिरा गांधी का जन्म 19 नवंबर, 1917 को इलाहाबाद में एक कश्मीरी पंडित परिवार में हुआ था। वर्ष 1966 में भारत की तीसरी प्रधानमंत्री के रूप में चुनी गईं थीं इंदिरा। उसके बाद से आज तक देश में कोई भी महिला प्रधानमंत्री नहीं बनी है। पंडित नेहरू के बाद इंदिरा ने पिता की राजनीतिक विरासत संभाली। उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में बहुत ही दमदार और बड़े फैसले लिए। इंदिरा गांधी के ये फैसले इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए दर्ज है। इस तरह एक महिला देश की ‘आयरन लेडी’ बन गयी। भारत में मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। लेकिन, लोकतंत्र के इस स्तंभ पर सबसे बड़े निशान इंदिरा ने ही छोड़े…! देश की ‘आयरन लेडी’ की जयंती पर कहानी उस इमरजेंसी की, जिसने पत्रकारिता पर ही लगा दिया आपातकाल:

“राष्ट्रपति ने आपातकाल की घोषणा की है। घबराने की कोई बात नहीं है।” – जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 26 जून 1975 की तड़के ऑल इंडिया रेडियो पर कहा तो कम ही लोग जानते थे कि यह भारतीय राजनीति में एक नए दौर की शुरुआत हो गई है। 25 जून की देर रात तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इंदिरा की सलाह पर इमरजेंसी डिक्लेयर किया।

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इंदिरा गांधी

भोजन की कमी, बढ़ती बेरोजगारी और अत्यधिक महंगाई का दौर

जरा फ्लैश बैक में चलते हैं: साल 1971, भारत और पाकिस्तान के बीच भीषण युद्ध। पाकिस्तान पर भारत की जीत के बाद गांधी घरेलू क्षेत्र में बेतहाशा लोकप्रिय हो गयी थीं। हालांकि, वहीं उन्हें कई मुद्दों का सामना करना पड़ा। जैसे भोजन की कमी, बढ़ती बेरोजगारी और अत्यधिक महंगाई। उधर पटना वाले जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र विरोधों से स्थिति और भी गंभीर हो गयी थी।, जिसने कांग्रेस शासन के तहत भ्रष्टाचार को लताड़ लगाई और गांधी के इस्तीफे की मांग की।

दूसरी ओर, 1971 के रायबरेली संसदीय चुनावों में गांधी की जीत जांच के दायरे में आई। समाजवादी नेता राज नारायण, जिन्होंने इंदिरा के खिलाफ चुनाव लड़ा था, ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की, जिसमें गांधी पर भ्रष्ट आचरण और सरकारी तंत्र का दुरुपयोग के माध्यम से चुनाव जीतने का आरोप लगाया गया।

12 जून 1975 को, न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने गांधी के चुनाव को शून्य घोषित कर दिया। उन्होंने उन्हें छह साल के लिए चुनाव लड़ने से भी रोक दिया, हालांकि, कांग्रेस को एक प्रतिस्थापन प्रधानमंत्री खोजने के लिए 20 दिन का समय दिया। बता दें एक प्रधानमंत्री को कोर्ट में बुलाना। उसके बाद 05 घंटे से ज्यादा उनसे पूछताछ करना छोटी बात नहीं थी। उस समय देशभर में इस केस को लेकर ढेर सारी बहस चल रही थी। लेकिन जगमोहन लाल सिन्हा अपनी बात पर अडिग थे। गांधी ने फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। 24 जून 1975 को, शीर्ष अदालत ने फैसले पर सशर्त रोक लगा दी, लेकिन उन्हें किसी भी संसदीय कार्यवाही की देखरेख नहीं करने का आदेश दिया।

वहीं, जेपी नारायण ने प्रधानमंत्री को हटाने के लिए एक राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह का आह्वान किया। उनकी पार्टी के कई लोगों ने उन्हें इस्तीफा देने के लिए कहा। हालांकि, इंदिरा ने मन बना लिया था। उन्होंने जेपी के आंदोलन का जवाब आपातकाल घोषित करके दिया।

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आपातकाल के दौरान क्या हुआ था?

संवैधानिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था। लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहार वाजपेयी, मोरारजी देसाई और जेपी नारायण सहित गांधी के कई राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया गया था। इस अवधि में प्रेस की सेंसरशिप देखी गई। संजय गांधी ने एक सामूहिक नसबंदी कार्यक्रम भी चलाया। सारी शक्तियां केंद्र सरकार के हाथों में निहित थीं।

उस दौर में प्रमुख अखबारों के कार्यालय दिल्ली के जिस बहादुरशाह जफर मार्ग पर थे, वहां की बिजली 4 दिन पहले से ही काट दी गई, ताकि अगले दिन के अखबार प्रकाशित नहीं हो सकें। जो अखबार छप भी गए, उनके बंडल जब्त कर लिए गए। हॉकरों से अखबार छीन लिए गए। 26 जून की दोपहर होते-होते प्रेस सेंसरशिप लागू कर अभिव्यक्ति की आजादी को रौंद डाला गया। अखबारों के दफ्तरों में अधिकारी बैठा दिए गए। बिना सेंसर अधिकारी की अनुमति के अखबारों में राजनीतिक खबर नहीं छापे जा सकते थे।

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राजनारायण और इंदिरा गांधी

उस वक्त ऑल इंडिया रेडियो के समाचार संपादक रहे कपिल अग्निहोत्री के मुताबिक, वह पहला मौका था जब सत्ता को लगा कि खबरें उसके खिलाफ नहीं जानी चाहिए। पहली बार समाचार एजेंसी पीटीआइ-यूएनआइ को चेताया गया कि बिना जानकारी इस तरह से खबरें जारी नहीं करनी हैं। समाचार एजेंसी तब सरकार की बात ना मानती तो एजेंसी के सामने बंद होने का खतरा मंडराने लगता। यह अलग मसला है कि मौजूदा वक्त में सत्तानुकूल हवा खुद-ब-खुद ही एजेंसी बनाने लगती है क्योंकि एजेंसियों के भीतर इस बात को लेकर ज्यादा प्रतिस्पर्धा होती है कि कौन सरकार या सत्ता के ज्यादा करीब है।

बहरहाल, जब जयप्रकाश नारायण को गांधी पीस फाउंडेशन से गिरफ्तार किया गया और उन्होंने उस वक्त मौजूद पत्रकारों से जो शब्द कहे उसे समाचार एजेसी ने जारी तो कर दिया। लेकिन चंद मिनटों में ही जेपी के कहे शब्द वाली खबर ‘किल’ कर जारी कर दी गई। समूचे आपातकाल के दौर यानी 21 महीनों तक जेपी के शब्दों को किसी ने छापने की हिम्मत नहीं की। वह शब्द था: विनाशकाले विपरीत बुद्धि…।

परिणाम:

आपातकाल 21 महीने तक चला। जनवरी 1977 में, सरकार ने कहा कि वह जल्द ही चुनाव कराएगी। मार्च 1977 के चुनावों में कांग्रेस को भारी हार का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी की स्थापना के लिए विपक्षी नेता एकजुट हुए, जिसने स्वतंत्र भारत में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनाई।

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